जन्म: जुलाई 16, 1909
निधन: जुलाई 29, 1996
उपलब्धियां: भारत छोड़ो आंदोलन में मुख्य भूमिका, दिल्ली की प्रथम मेयर, 1964 में अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार, 1991 में अंतरराष्ट्रीय समझौते के लिए जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार, 1998 में भारत रत्न से सम्मानित
अरुणा आसफ़ अली आजादी की लड़ाई में एक नायिका के रूप में उभर कर सामने आईं। उनकी पहचान 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से हुई। इस दौरान उन्होंने अपनी योग्यता सिद्ध किया| उन्होंने गौलिया टैंक मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराकर भारत छोड़ो आंदोलन के आगाज की सूचना दी। ऐसा करके वो उन हजारों युवाओं के लिए एक मिशाल बन गयीं जो उनका अनुसरण कर देश की आज़ादी के लिए कुछ करगुजरना चाहते थे।
अरुणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को कालका (हरियाणा) के एक रूढ़िवादी हिंदू बंगाली परिवार में हुआ था। उनके बचपन कानाम अरुणा गांगुली था। उन्होंने लाहौर और नैनीताल के सेक्रेड हार्ट कान्वेंट में अपनी शिक्षा प्राप्त की। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद अरुणा आसफ अली गोखले मेमोरियल स्कूल, कलकत्ता, में शिक्षक के तौर पर कार्य करने लगीं। इलाहबाद में उनकी मुलाकात उनके होने वाले पति आसफ अली से हुई जो प्रख्यात कांग्रेसी नेता थे और उम्र में उनसे 23 वर्ष बड़े थे। उन्होंने 1928 में अपने माता पिता के मर्जी के विरुद्ध जाकर शादी कर ली जो कि उनके धर्म और आयु में इतने ज्यादा अंतर के विरुद्ध थे।
चूंकि आसफ अली स्वतंत्रता संग्राम से पूरी तरह से जुड़े हुए थे इसीलिये शादी के उपरांत अरुणा आसफ अली भी उनके साथ इस मुहीम में जुड़ गयीं । वर्ष 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान उन्होंने सार्वजनिक सभाओं को सम्बोधित किया और जुलूस निकाला। ब्रिटिश सरकार नेउन पर आवारा होने का आरोप लगाया और उन्हें एक साल जेल की सजा सुनाई। गांधी-इर्विन समझौते के अंतर्गत सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया, पर अरुणा को मुक्त नहीं किया गया। परन्तु जब उनके पक्ष में एक जन आंदोलन हुआ तब ब्रिटिश सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा।उन्हें 1932 में पुनः बंदी बना लिया गया और तिहाड़ जेल में रखा गया। तिहाड़ जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ हो रहे बुरे बर्ताव के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल की। उनके विरोध के कारण ही हालात में कुछ सुधार हुआ। लेकिन वह स्वयं अम्बाला के एकांत कारावास में चली गयीं। रिहा होने के बाद उन्हें 10 साल के लिए राष्ट्रीय आंदोलन से अलग कर दिया गया। वर्ष 1942 में उन्होंने अपने पति के साथ बॉम्बे के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया जहाँ पर 8 अगस्त को ऐतिहासिक ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ। प्रस्ताव पारित होने के एक दिन बाद जब कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार किया गया तब अरुणा ने बॉम्बे के गौलिया टैंक मैदान में ध्वजारोहण कर आंदोलन की अध्यक्षता की। उन्होंने आंदोलन में एक नया जोश भर दिया। वह भारत छोड़ो आंदोलन में पूर्ण रूप से सक्रिय हो गईं और गिरफ़्तारी सेबचने के लिए भूमिगत हो गईं। उनकी संपत्ति को सरकार द्वारा जब्त करके बेच दिया गया। सरकार ने उन्हें पकड़ने के लिए 5000 रुपए की घोषणा भी की। इस बीच वह बीमार पड़ गईं और यह सुनकर गांधी जी ने उन्हें समर्पण करने की सलाहदी। 26 जनवरी 1946 में जब उन्हें गिरफ्तार करने का वारंट रद्द किया गया तब अरुणा आसफ अली ने स्वयं आत्मसमर्पण किया।
आजादी के समय अरुणा आसफ अली सोशलिस्ट पार्टी की सदस्या थीं। सोशलिस्ट पार्टी तब तक कांग्रेस की रूपरेखा का हिस्सा रहा था। हालाँकि 1948 में अरुणा और समाजवादियों ने मिलकर स्वयं एक सोशलिस्ट पार्टी बनाई। 1955 में यह समूह भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गया और वह इसकी केंद्रीय समिति की सदस्य और आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की उपाध्यक्ष बन गईं। 1958 में उन्होंने भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी को छोड़ दिया और दिल्ली की प्रथम मेयर चुनी गईं। 1964 में वह कांग्रेस पार्टी से दोबारा जुड़ गयीं पर सक्रिय रूप से भाग लेने से मना कर दिया। 1975 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार और 1991 में अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान के लिए जवाहर लाल नेहरू पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। 29 जुलाई 1996 को अरुणा आसफ अली का देहांत हो गया। 1998 में उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ और भारतीय डाक सेवा द्वारा जारी किए गए एक डाक टिकट से सम्मानित किया गया।