जन्म: 11 अप्रैल, 1887, बांकुड़ा ज़िला, पश्चिम बंगाल
मृत्यु: 24 अप्रैल, 1972, कोलकाता
कार्यक्षेत्र: चित्रकारी
विद्यालय: ‘गवर्नमेंट स्कूल ऑफ़ आर्ट्स’, कोलकाता
पुरस्कार/उपाधि: ‘वायसरॉय का स्वर्ण पदक’ (1935), ‘पद्म भूषण’ (1955)
जामिनी रॉय का नाम भारत के महान चित्रकारों में गिना जाता है। वे 20वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण आधुनिकतावादी कलाकारों में से थे, जिन्होंने अपने समय की कला परम्पराओं से अलग एक नई शैली स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाई। वे महान चित्रकार अबनिन्द्रनाथ टैगोर के सबसे प्रसिद्ध शिष्यों में एक थे।
प्रारंभिक जीवन
जामिनी रॉय का जन्म 11 अप्रैल, 1887 में पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा ज़िले में ‘बेलियातोर’ नामक गाँव में एक समृद्ध ज़मींदार परिवार में हुआ। उनका प्रारंभिक जीवन गांव में ही बीता जिसका गहरा असर रॉय के आरंभिक वर्षों के कार्यों पर पड़ा। आदिवासी और उनकी लोक कला, ग्रामीण हस्तशिल्पी, अल्पना (चावल की लेई से चित्रकारी) तथा पटुआ ने कला और चित्रकारी के प्रति जामिनी की प्रारंभिक रुचि जगाई। सन 1903 में 16 वर्ष की आयु में जामिनी रॉय ने कोलकाता के ‘गवर्नमेंट स्कूल ऑफ़ आर्ट्स’ में दाख़िला लिया, जिसके प्रधानाचार्य पर्सी ब्राउन थे। ‘बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट’ के संस्थापक अबनिन्द्रनाथ टैगोर इस विद्यालय के उप-प्रधानाचार्य थे। यहाँ उन्होंने मौजूदा शैक्षिक पद्धति में पेंट करना सीखा। सन 1908 में उन्होंने ‘डिप्लोमा इन फाइन आर्ट्’ प्राप्त किया।
‘गवर्नमेंट स्कूल ऑफ़ आर्ट्स’ में मिले प्रशिक्षण ने जामिनी रॉय को चित्रकारी की विभिन्न तकनीकों में पारंगत होने में मदद की। उन्होंने प्रतिकृति चित्रण एवं प्राकृतिक दृश्य चित्रण से अपने चित्रकारी का आरंभ किया, जो तुरंत लोगों की नज़रों में आया और पसंद भी किया गया।
उन्हें इस बात का शीघ्र ही एहसास हो गया कि ‘भारतीय विषय’ ‘पश्चिमी परंपरा’ से ज्यादा प्रेरणादाई हो सकते हैं। प्रेरणा के लिए उन्होंने जीवित लोक कला और आदिवासी कला का ध्यान पूर्वक अध्ययन किया। कालीघाट पेटिंग उनके लिए सबसे ज्यादा प्रेरणादायक सिद्ध हुई।
करियर
कोलकाता के ‘गवर्नमेंट स्कूल ऑफ़ आर्ट्स’ से पढ़ाई के बाद उन्हें पोर्ट्रेट बनाने का काम नियमित रूप से मिलता रहा पर राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रभाव से बंगाल में साहित्य और कलाओं में सभी तरह के प्रयोग होने लगे। इसके परिणामस्वरूप पहले तीन दशकों में बंगाल की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में बहुत जबर्दस्त परिवर्तन आया। प्रसिद्ध चित्रकार अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने यूरोपीय प्रकृतिवाद और तैल के माध्यम को छोड़कर ‘बंगाल स्कूल’ की स्थापना की। इस प्रकार जामिनी रॉय ने कला शिक्षा/प्रशिक्षण के दौरान जो कला शैली सीखी थी, उसका त्याग कर दिया।
1920 के दशक के प्रारंभिक कुछ वर्षों में उन्हें कला के ऐसे नये विषयों की तलाश थी, जो उनके ह्रदय के करीब थे। इसके लिए उन्होंने परंपरागत और स्थानिय स्रोतों जैसे लेखन शैली, पक्की मिट्टी से बने मंदिरों की कला वल्लरियों, लोक कलाओं की वस्तुओं और शिल्प कलाओं आदि से प्रेरणा ली। 1920 के बाद के वर्षों में उन्होंने ऐसे चित्र बनाये जो खुशनुमा ग्रामीण माहौल को प्रकट करते थे और जिनमें ग्रामीण वातावरण के भोले और स्वच्छंद जीवन की झलक थी। इस काल के बाद उन्होंने अपनी जड़ों से जुड़ी हुई वस्तुओं को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया था।
‘प्लाउमैन’, ‘ऐट सनमेट प्रेयर’, ‘वैन गॉ’ तथा ‘सेल्फ़ पोट्रेट विद वैन डाइक बियर्ड’ आदि उनके प्रारंभिक रचनाओं में शामिल हैं।
जामिनी रॉय ने धीरे-धीरे महसूस किया कि न तो पाश्चात्य तकनीक और न ही अवनीन्द्रनाथ टैगोर की बंगाल शैली उन्हें आकर्षित करती है। 1920 के दशक में उनके जीवन में महत्त्वपूर्ण मोड़ आया जब राष्ट्रीय आंदोलन ने भी उनकी कला अभिव्यक्ति की नई शैली की खोज में योगदान दिया। यह एक ऐसी शैली थी जिससे वे आत्मीय व भावनात्मक रूप से जुड़ पाए। जैसे-जैसे वह मूल रूप-विधान और प्राथमिक रंगों से जुड़ते गए, उनकी कला अत्यधिक सृजनात्मक और प्रतीकात्मक होती गई।
1920 के दशक के अंतिम सालों तक जामिनी रॉय स्थानिय लोक कलाओं और शिल्प परम्पराओं से प्रेरणा ग्रहण करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने साधारण ग्रामीणों और कृष्णलीला के चित्र बनाए और महान ग्रंथों के दृश्यों, क्षेत्र की लोक कलाओं की महान हस्तियों को चित्रित किया और पशुओं को भी बड़े विनोदात्मक तरीके से प्रस्तुत किया। उन्होंने एक बड़ा दिलचस्प और साहसिक प्रयोग भी किया था – ईसा मसीह के जीवन से जुड़ी घटनाओं के चित्रों की श्रृंखला। उन्होंने इसमें ईसाई धर्म की पौराणिकता से जुड़ी कहानियों को इस तरह से प्रस्तुत किया कि वह साधारण ग्रामीण व्यक्ति को भी आसानी से समझ में आ सकती थी।
सन 1938 में उनकी कला की प्रदर्शनी पहली बार कोलकाता के ‘ब्रिटिश इंडिया स्ट्रीट’ पर लगायी गयी। 1940 के दशक में वे बंगाली मध्यम वर्ग और यूरोपिय समुदाय में बहुत मशहूर हो गए। सन 1946 में उनके कला की प्रदर्शनी लन्दन में आयोजित की गयी और उसके बाद सन 1953 में न्यू यॉर्क सिटी में भी उनकी कला प्रदर्शित की गयी। सन 1954 में भारत साकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।
कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उनकी कला का व्यापक प्रदर्शन हो चुका है और उनकी कृतियां कई निजी और सार्वजनिक संग्रहण जैसे विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूजियम लन्दन में भी देखी जा सकती हैं।
पुरस्कार और सम्मान
- सन 1934 में उन्हें उनके ‘मदर हेल्पिंग द चाइल्ड टु क्रॉस ए पूल’ चित्र के लिए वाइसरॉय का स्वर्ण पदक प्रदान किया गया
- सन 1954 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया
- सन 1955 में उन्हें ‘ललित कला अकादमी’ का पहला फेलो बनाया गया
- सन 1976 में ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण’, संस्कृति मंत्रालय और भारत सरकार ने उनके कृतियों को बहुमूल्य घोषित किया
व्यक्तिगत जीवन
उन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर वक़्त कोलकाता में बिताया। जैसा की प्रारंभ में बताया जा चुका है कि प्रारंभ में उन्होंने कालीघाट पेंटिंग्स से प्रेरणा ली पर धीरे-धीरे उन्हें यह एहसास हुआ कि यह शैली पूर्ण रूप से पटुआ नहीं रही अतः उन्होंने गांवों में जाकर ये शैली सीखी। वे अपने आप को पटुआ कहलाना पसंद करते थे।
इस महान चित्रकार का निधन 24 अप्रैल, 1972 को कोलकाता में हुआ। वे अपने पीछे चार पुत्र और एक पुत्री छोड़ गए। उनके परिवार की अगली पीढियां और बच्चे उनके द्वारा बनाये गए कोलकाता के ‘बल्लीगंज प्लेस’ में रहते हैं।
उनकी कई कृतियां विश्व के अनेक आर्ट गैलेरियों और उनके घर में मौजूद हैं।