जन्म : 3 अप्रैल, 1903 (मंगलोर, कर्नाटक)
मृत्यु : 29 अक्टूबर, 1988
कार्यक्षेत्र : स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और समाज सुधारक
कमलादेवी चट्टोपाध्याय एक समाज सुधारक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, नारी आन्दोलन की पथ प्रदर्शक तथा भारतीय हस्तकला के क्षेत्र में नव-जागरण लाने वाली गांधीवादी महिला थीं. ये एक सामाजिक कार्यकर्ता, कला और साहित्य की समर्थक भी थीं. जिंदगी की तन्हाई और महात्मा गांधी के आह्वान के चलते वे राष्ट्र सेवा से जुड़ गईं थीं.
देश के हस्तशिल्प और हथकरघा क्षेत्र को एकीकृत करने और उसे राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान देने वाली कमलादेवी चट्टोपाध्याय को महात्मा गांधी बहुत मानते थे और इस निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी को उन दिनों गांधी जी ने ‘सुप्रीम रोमांटिक हिरोइन’ का खिताब दिया था.
कमलादेवी ब्राह्मण होते हुए भी समाजवादी थीं, बालिका वधू होते हुये भी ये स्त्री अधिकारवादी थीं. ये एक ऐसी राजनेता थीं, जिन्हें कुर्सी की दरकार नहीं थी. राष्ट्रभक्ति का जज्बा ऐसा था कि आजादी के बाद इन्होंने सरकार द्वारा प्रदत्त सम्मान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. देश के विभाजन के बाद उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास में अपने आप को लगा दिया. वो गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरोजनी नायडू तथा कस्तूरबा गांधी से बहुत प्रभावित थीं.
जब ये लन्दन में थीं तभी से महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से वर्ष 1923 में जुड़ गईं और भारत लौट आईं. यहां आकर ये सेवादल तथा गांधीवादी संगठनों में अपना योगदान देने लगीं.
प्रारम्भिक और पारिवारिक जीवन
कमलादेवी चट्टोपाध्याय का जन्म 3 अप्रैल, 1903 को मंगलोर (कर्नाटक) के एक सम्पन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था. ये अपने माता-पिता की चौथी और सबसे छोटी पुत्री थीं. इनके पिता अनंथाया धारेश्वर मंगलोर के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर थे. इनकी मां गिरिजाबाई अच्छी पढ़ी-लिखी, संस्कारी और निर्भीक महिला थीं, जो कर्नाटक के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखती थीं. इनकी दादी स्वयं प्राचीन भारतीय दर्शन की बहुत अच्छी जानकार थीं. इस प्रकार के वातावरण में परवरिश होने के परिणाम स्वरूप ये स्वयं भी तर्कशील और स्वावलंबी थीं, जो उनके जीवन में आगे चलकर काम आया. इन्होंने पहले मंगलोर तथा बाद में दूसरी शादी के बाद लन्दन यूनिवर्सिटी के बेडफ़ोर्ड कॉलेज से समाजशास्त्र में डिप्लोमा प्राप्त किया. इन्होंने प्राचीन भारतीय पारम्परिक संस्कृत ड्रामा कुटीयाअट्टम (केरल) का गहन अध्ययन भी किया था.
जब इनकी उम्र 7 वर्ष की थी तो इनके पिता का स्वर्गवास हो गया. ये बाल विवाह का शिकार हुईं और इनकी पहली शादी अत्यन्त छोटी उम्र यानि 12 वर्ष की अवस्था में कृष्णा राव के साथ वर्ष 1917 में हुई. परन्तु दुर्भाग्यवश दो वर्षों के अंदर ही कृष्णा राव की वर्ष 1919 में मृत्यु हो गयी तथा अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही ये विधवा हो गईं.
बाद में अपनी पसन्द से वर्ष 1919 में ही सरोजिनी नायडू के छोटे भाई हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ पुन: विवाह के बंधन में बंध गईं. हालांकि जात-पात में विश्वास रखने वाले उनके रिश्तेदारों ने इसका घोर विरोध किया.
शादी के कुछ दिनों बाद कमलादेवी हेरेंद्रनाथ के साथ लन्दन चली गयीं. हरेन्द्रनाथ भी कला, संगीत, कविता और साहित्य में रूचि रखने वाले व्यक्ति थे. लेकिन दोनों की विचारधाराओं में मेल नहीं होने के कारण यह संबंध अधिक समय तक नहीं चला और इसकी परिणति तलाक के रूप में हुई. इन्होने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रामकृष्ण चट्टोपाध्याय था.
महिला आन्दोलन में योगदान
प्रकृति की दीवानी कमला देवी ने ‘ऑल इंडिया वीमेन्स कांफ्रेंस’ की स्थापना की. ये बहुत दिलेर थीं और पहली ऐसी भारतीय महिला थीं, जिन्होंने 1920 के दशक में खुले राजनीतिक चुनाव में खड़े होने का साहस जुटाया था, वह भी ऐसे समय में जब बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं को आजादी शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम था. ये गांधी जी के ‘नमक आंदोलन’ (वर्ष 1930) और ‘असहयोग आंदोलन’ में हिस्सा लेने वाली महिलाओं में से एक थीं.
नमक कानून तोड़ने के मामले में बांबे प्रेसीडेंसी में गिरफ्तार होने वाली वे पहली महिला थीं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे चार बार जेल गईं और पांच साल तक सलाखों के पीछे रहीं.
हस्तशिल्प तथा हथकरघा कला को विकसित करने में योगदान
इन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में बिखरी समृद्ध हस्तशिल्प तथा हथकरघा कलाओं की खोज की दिशा में अद्भुत एवं सराहनीय कार्य किया. कमला चट्टोपाध्याय पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने हथकरघा और हस्तशिल्प को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई.
आजादी के बाद इन्हें वर्ष 1952 में ‘आल इंडिया हेंडीक्राफ्ट’ का प्रमुख नियुक्त किया गया. ग्रामीण इलाकों में इन्होंने घूम-घूम कर एक पारखी की तरह हस्तशिल्प और हथकरघा कलाओं का संग्रह किया. इन्होंने देश के बुनकरों के लिए जिस शिद्दत के साथ काम किया, उसका असर यह था कि जब ये गांवों में जाती थीं, तो हस्तशिल्पी, बुनकर, जुलाहे, सुनार अपने सिर से पगड़ी उतार कर इनके कदमों में रख देते थे. इसी समुदाय ने इनके अथक और निःस्वार्थ मां के समान सेवा की भावना से प्रेरित होकर इनको ‘हथकरघा मां’ का नाम दिया था.
देश के प्रमुख सांस्कृतिक और आर्थिक संस्थनों की स्थापना में योगदान
भारत में आज अनेक प्रमुख सांस्कृतिक संस्थान इनकी दूरदृष्टि और पक्के इरादे के परिणाम हैं. जिनमें प्रमुख हैं- नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, संगीत नाटक अकेडमी, सेन्ट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज एम्पोरियम और क्राफ्ट कौंसिल ऑफ इंडिया. इन्होंने हस्तशिल्प और को-ओपरेटिव आंदोलनों को बढ़ावा देकर भारतीय जनता को सामाजिक और आर्थिक रूप से विकसित करने में अपना योगदान दिया. हालांकि इन कार्यों को करते समय इन्हें आजादी से पहले और बाद में सरकार से भी संघर्ष करना पड़ा.
इनके द्वारा लिखित पुस्तकें
इन्होंने ‘द अवेकिंग ऑफ इंडियन वोमेन’ वर्ष 1939, ‘जापान इट्स विकनेस एंड स्ट्रेन्थ’ वर्ष 1943, ‘अंकल सैम एम्पायर’ वर्ष 1944, ‘इन वार-टॉर्न चाइना’ वर्ष 1944 और ‘टुवर्ड्स a नेशनल थिएटर’ नामक पुस्तकें भी लिखीं, जो बहुत चर्चित रहीं.
पुरस्कार एवं सम्मान
समाज सेवा के लिए भारत सरकर ने इन्हें नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ से वर्ष 1955 में सम्मानित किया.
वर्ष 1987 में भारत सरकर ने अपने दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से इन्हें सम्मानित किया.
सामुदायिक नेतृत्व के लिए वर्ष 1966 में इन्हें ‘रेमन मैग्सेसे’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
इन्हें संगीत नाटक अकादमी की द्वारा ‘फेलोशिप और रत्न सदस्य’ से सम्मानित किया गया.
संगीत नाटक अकादमी के द्वारा ही वर्ष 1974 में इन्हें ‘लाइफटाइम अचिवेमेंट’ पुरस्कार भी प्रदान किया गया था.
यूनेस्को ने इन्हें वर्ष 1977 में हेंडीक्राफ्ट को बढ़ावा देने के लिए सम्मानित किया था.
शान्ति निकेतन ने अपने सर्वोच्च सम्मान ‘देसिकोट्टम’ से सम्मानित किया.
निधन
वर्ष 29 अक्टूबर, 1988 में वे स्वर्गवासी हो गईं.