जन्म: 24 मार्च, 1775
जन्म स्थान: तिरुवरुर, तंजावुर (तमिलनाडु)
निधन: 21 अक्टूबर, 1835
कार्यक्षेत्र: कर्नाटक संगीत के निर्माण तथा भारतीय शास्त्रीय संगीत के उत्थान में योगदान
मुथुस्वामी दीक्षितार दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत शैली के महान प्रतिपादक थे. इन्होंने लगभग 500 संगीत रचनाओं का निर्माण किया था, जिनमें से अधिकांश रचनाएं आज भी व्यापक रूप से कर्नाटक एवं दक्षिण भारत में होने वाले विभिन्न संगीत कार्यक्रमों में प्रसिद्ध संगीतकारों द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं. मुथुस्वामी दीक्षितार कर्नाटक संगीत के 18वीं शताब्दी के संगीतकारों की तिकड़ी (त्यागराज, श्यामा शास्त्री और मुथुस्वामी दीक्षितार) में सबसे कम उम्र के संगीतकार थे.
त्यागराज, श्यामा शास्त्री के साथ-साथ मुथुस्वामी दीक्षितार ने भी भारत के उत्तरी और दक्षिणी संगीत तथा काव्य को एक साथ समायोजित किया. भारतीय संगीत में इस विशेष योगदान के लिए इन्हें भारतीय संगीत के इतिहास में इन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है.
इनके संगीत और काव्य का प्रत्येक राग अपने आप में विशेष था, जो अलग-अलग भारतीय देवी-देवताओं को समर्पित था. इन्होंने संगीत के माध्यम से ईश्वर के अद्वैत दर्शन का प्रचार-प्रसार किया था. इसके अतिरिक्त इन्होंने संगीत के जटिल राग और सुरों को मधुर तथा कविता के आसन रूपों में परिवर्तित किया, जिसे ‘कीर्ति’ के नाम से जाना जाता है.
प्रारम्भिक एवं पारिवारिक जीवन
मुथुस्वामी दीक्षितार का जन्म 24 मार्च, 1775 को वर्तमान तमिनाडु के तंजावुर जिले के तिरुवरुर नामक स्थान पर हुआ था. इनका सम्बन्ध एक परम्परावादी तमिल ऐय्यर ब्राह्मण परिवार से था. इनके पिता का नाम रामास्वामी दीक्षितार और मां का नाम सुब्बम्मा था. ये अपने माता-पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे. इनके दो छोटे भाई बालुस्वामी और चिन्नास्वामी थे तथा इनकी एक बहन भी थी, जिसका नाम बालाम्बल था.
इनकी मां सुब्बम्मा के कथनानुसार इनके बेटे का जन्म मन्मथ वर्ष के फागुन महीने के कृतिका नक्षत्र में हुआ था. इनके जन्म के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि मुथुस्वामी का जन्म उनके माता-पिता द्वारा वैथीस्वरन कोइल मंदिर में कई वर्षों के तपस्या के परिणाम स्वरूप हुआ था. इस वजह से इनका नामकरण भी मंदिर के देवता मुथुकुमार स्वामी के नाम पर ही किया गया था.
ऐसा माना जाता है कि मुथुस्वामी दीक्षितार ने विवाह किया था, जिससे इन्हें एकमात्र पुत्री हुई थी, जो संगीत के वाद्ययंत्रों को बजाने के लिए प्रसिद्ध और सिद्धस्थ थी.
इनकी शिक्षा-दीक्षा
शिक्षित ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने की वजह से इन्होंने संस्कृत भाषा, पारम्परिक धार्मिक शिक्षा और संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से ग्रहण किया था. मुथुस्वामी दीक्षितार के प्रथम गुरु इनके पिता थे, जिन्होंने इन्हें प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा दी. इसके बाद योगी चिदम्बरनाथ इन्हें अपने साथ ले गए, जिन्होंने इनको आगे की शिक्षा दी, परन्तु दुर्भाग्यवश इनकी शिक्षा पूर्ण होने से पहले ही उनका (गुरु) निधन हो गया. इसके बाद ये संगीत का और अधिक प्रशिक्षण नहीं प्राप्त कर सके.
गुजरते समय के साथ इनके माता-पिता ने इन्हें बचपन में ही योगी चिदम्बरनाथ की देखरेख में धार्मिक तीर्थ स्थानों के दर्शन और भ्रमण के लिए भेज दिया था. इनको परिवार से दूर भेजने का मुख्य कारण यह था कि इनके जीवन दृष्टिकोण का सर्वांगिण और व्यापक विस्तार हो तथा संगीत की शिक्षा का विस्तृत ज्ञान हो सके. इन्होंने उत्तर भारत का विस्तृत रूप से भ्रमण किया, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण इनके संगीत में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का होना है. मुथुस्वामी दीक्षितार द्वारा तैयार की गई बहुत सी रचनाएं संस्कृत भाषा में रची गई हैं. ये रचनाएं ‘कीर्ति शैली’ में की गई हैं. कविताओं को संगीत के रूप में लयबद्ध किया गया है.
इन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में देश के बहुत से पवित्र तथा धार्मिक स्थानों का भ्रमण किया था. परिणामत: इन्होंने विभिन्न देवी-देवताओं और मंदिरों का विशेष उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है. इनकी रचनाओं की मुख्य विशेषता यह है कि इनका निर्माण तत्कालीन प्रचलित तरीके से अलग हटकर एक विशेष तरीके से हुआ है.
इन्होंने अपनी 500 रचनाओं में से प्रत्येक का निर्माण न केवल मधुर भाव के साथ किया है बल्कि ये रचनाएं मानव जीवन की संवेदनाओं की गहराई से भी भरी हुई हैं. इनकी संस्कृत की रचनाओं में मंदिर के देवी-देवताओं को आधार मानकर वर्णन किया गया है. जबकि इनकी व्यक्तिगत सोच अद्वैतवाद की अवधारणा पर आधारित लगती है. इनके द्वारा रचित गीतों में मंदिरों का इतिहास, वास्तुकला, मूल्यवान परंपरा और उसके परिसर के सौन्दर्य का जीवंत वर्णन देखने को मिलता है.
भारतीय संगीत को आगे बढ़ाने में इनका योगदान
मुथुस्वामी ने अपने जीवनकल में विभिन्न प्रकार की संगीत से सम्बंधित रचनायें की. इनमें से कुछ प्रमुख रचनाएं हैं – षोडश गणपति कीर्ति, गुरुगुहा विभक्ति कीर्ति, कमलाम्ब नववर्ण कीर्ति, नवग्रह कीर्ति, निलोत्पलाम्ब विभक्ति कीर्ति, पंचलिंग क्षेत्र कीर्ति, राम विभक्ति कीर्ति, अभायाम्ब विभक्ति कीर्ति तथा अन्य रचनाएं.
इनके उत्कृष्ट संगीत तथा काव्य रचनाओं के संदर्भ में अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं. एक जनश्रुति के अनुसार एक बार वे अपना ध्यानयोग दक्षिण भारत के तिरुत्तनी मंदिर में कर रहे थे, तभी एक व्यक्ति ने इन्हें अपना मुंह खोलने को कहा और मुंह में चीनी (मीठी वस्तु) का एक टुकड़ा डाल दिया तथा तुरंत अंतर्ध्यान हो गया. इसके बाद जब इन्होंने अपना मुंह खोला तो मुरुगा देवता का कल्याणकारी सन्देश इनके मुख से निकला. इससे बहुत खुश होकर इन्होंने अपनी रचना ‘श्री नाथादी गुरुगुहो’ को ‘मायामालावागोवला’ राग में गाना शुरू किया. इसके बाद इन्होंने मुरुगा देवता के लिए बहुत से छोटे-छोटे गीत-संगीत की रचना भी की. इसी प्रकार इन्होंने बहुत से धार्मिक स्थानों जैसे- कांची, तिरुवन्नामलाई, चिदम्बरम्, तिरुपति और कलाहस्थी का भ्रमण किया.
देश के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करने के बाद जब वे अपने घर वापस आए तो संगीत के वाद्ययंत्रों वीणा और वायलिन में महारथ हासिल कर चुके थे. इनकी प्रत्येक रचनाएं अन्य तत्कालीन रचनाकारों और कलाकारों से अलग थीं. इनमें से कुछ प्रमुख राग हैं- कमलाम्बा नववर्ण, नवग्रह कीर्ति, निलोत्पलम्ब कीर्ति और मेलाकार्थ राग. इनकी अधिकांश रचनाएं संस्कृत में थीं, जबकि इनके समक्ष त्यागराज की रचनाएं तेलगु में थीं.
इनके प्रमुख शिष्यों में शिवानंदम, पोंनाय्या, चिन्नाय्या और वादिवेलु थे. इनके शागिर्दों ने बाद में इनके सम्मान में एक ‘नवरत्न माला’ की रचना की, जिसने आगे चलकर भरतनाट्यम के माध्यम से भातीय शास्त्रीय नृत्य के निर्माण में मुख्य भूमिका निभायी.
निधन
इन्होंने 21 अक्टूबर, 1835 को अपना नश्वर शरीर त्याग दिया. इनका अंतिम संस्कार एट्टायापुरम में कोइल्पट्टी और तुतीकोरण के पास किया गया था.
इनके भाई बालुस्वामी ने इनके निधन के बाद इनकी रचनाओं को व्यवस्थित करने और इनके विचारों के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.