त्यागराज

Tyagaraja Biography in Hindi

जन्म: 4 मई, 1767 तंजावुर (तमिलनाडु) भारत

मृत्यु: 6 जनवरी, 1847

कार्यक्षेत्र: संगीत, कविता तथा भक्ति साहित्य की रचना करना

त्यागराज ‘कर्नाटक संगीत’ के सबसे बड़े प्रतिपादकों में एक थे. ये ‘कर्नाटक संगीत’ के महान ज्ञाता तथा भक्ति मार्ग के एक प्रसिद्ध कवि थे. इन्होंने भगवान श्रीराम को समर्पित भक्ति गीतों की रचना की थी. इनके सर्वश्रेष्ठ गीत अक्सर धार्मिक आयोजनों में गाए जाते हैं. त्यागराज ने समाज एवं साहित्य के साथ-साथ कला को भी समृद्ध किया. इनकी विद्वता इनकी हर कृति में झलकती है और ‘पंचरत्न’ कृति को इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है. कहा तो यह भी जाता है कि त्यागराज के जीवन का कोई भी पल भगवान श्रीराम से जुदा नहीं था. ये अपनी अलग-अलग कृतियों में भगवान राम के साथ अपना अलग-अलग व्यक्तिगत सम्बन्ध बताते थे, जैसे- कभी मित्र, कभी मालिक, कभी पिता और कभी सहायक.

जो कुछ भी त्यागराज ने रचा है, वह सब कुछ अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में है. उसमें प्रवाह भी ऐसा है जो संगीत प्रेमियों को अपनी ओर अनायास ही खींच लेता है. आध्यात्मिक रूप से त्यागराज उन लोगों में से थे, जिन्होंने भक्ति के सामने किसी बात की परवाह नहीं की थी.

त्यागराज
स्रोत: www.thehindu.com

जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन

प्रसिद्ध संगीतज्ञ त्यागराज का जन्म 4 मई, 1767 को तमिलनाडु के तंजावुर ज़िले में तिरूवरूर नामक स्थान पर हुआ था. इनकी मां का नाम ‘सीताम्मा’ और पिता का नाम ‘रामब्रह्मम’ था. त्यागराज ने अपनी एक कृति में बताया है कि- ‘सीताम्मा मायाम्मा श्री रामुदु मा तंद्री’ अर्थात ‘सीता मेरी मां और श्री राम मेरे पिता हैं’. इसके जरिए शायद वह दो बातें स्पष्ट कहना चाहते थे- एक ओर वास्तविक माता-पिता के बारे में बताते हैं तो दूसरी ओर प्रभु राम के प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित करते हैं.

इनका जन्म एक परम्परावादी, रूढ़िवादी हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिसकी वजह से इनको बचपन से ही धार्मिक गीतों के प्रति विशेष लगाव पैदा हो गया था. इनका जन्म इनके नाना गिरिराज कवि के घर में हुआ था, जो तंजावुर के महाराजा के दरबारी कवि और संगीतकार थे. यह भी कहा जाता है कि इनके कवि और संगीतकार बनने में इनके नाना का बचपन से ही विशेष योगदान था.

जब त्यागराज 18 वर्ष के थे तब उनका विवाह परवातम्मा से वर्ष 1784 में हुआ, परंतु दुर्भाग्यवश उनकी मृत्यु वर्ष 1789 में ही हो गई. वर्ष 1790 में पुन: इनका दूसरा विवाह पूर्व पत्नी की बहन कमालाम्बा के साथ हुआ. इनको एक लड़की पैदा हुई थी जिसका नाम सीतालक्ष्मी था. बाद में किसी कारणवश इन्होंने घर त्याग दिया और ईश्वर की सेवा में अपने आप को समर्पित कर दिया.

त्यागराज एक प्रकांड विद्वान और कवि थे. ये संस्कृत, ज्योतिष तथा अपनी मातृभाषा तेलुगु के ज्ञानी पुरुष थे.

संगीत के प्रति इनका लगाव

संगीत के प्रति त्यागराज का लगाव बचपन से ही था. कम उम्र में ही ये सोंती वेंकटरमनैया के शिष्य बन गए थे, जो उस समय के बहुत ही उच्चकोटि के संगीत के विद्वान थे. अपने औपचारिक संगीत शिक्षा के दौरान इन्होंने शास्त्रीय संगीत के तकनीकी पक्षों को विशेष महत्व नहीं दिया और अध्यात्मिक तथ्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया. इनके गीत-संगीत का उद्देश्य शुद्ध रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक था. किशोरावस्था में ही इन्होंने अपने पहले गीत ‘नमो नमो राघव’ की रचना की थी.

कुछ वर्षों बाद जब इन्होंने संगीत की औपचारिक शिक्षा अपने गुरु से प्राप्त कर ली तो इनको  सोंती वेंकटरमनैया के द्वारा पुन: संगीत की प्रस्तुति के लिए बुलाया गया. इस समारोह में इन्होंने अपने गुरु को अपने संगीत प्रस्तुति से मंत्रमुग्ध कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने त्यागराज को राजा की तरफ से दरबारी कवि और संगीतकार के रूप में कार्य करने के लिए लिए निमंत्रण दे डाला. परन्तु इस प्रस्ताव को त्यागराज ने अस्वीकार कर दिया.

दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में प्रभावी योगदान करने वाले त्यागराज की रचनाएं आज भी काफ़ी लोकप्रिय हैं. आज भी धार्मिक आयोजनों तथा त्यागराज के सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों में इनका खूब गायन होता है. त्यागराज ने मुत्तुस्वामी दीक्षित और श्यामा शास्त्री के साथ कर्नाटक संगीत को नयी दिशा प्रदान की. इन तीनों के योगदान को देखते हुए ही इन्हें दक्षिण भारत में ‘त्रिमूर्ति’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है.

दक्षिण भारत की यात्रा

तत्कालीन तंजावुर नरेश त्यागराज की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे. उन्होंने त्यागराज को दरबार में शामिल होने के लिए आमंत्रित भी किया था, लेकिन प्रभु की उपासना में मग्न त्यागराज ने उनके आकर्षक प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. इन्होंने राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार कर प्रसिद्ध कृति ‘निधि चल सुखम्’ यानी ‘क्या धन से सुख की प्राप्ति हो सकती है’ की रचना की थी. इनके बारे में यह भी कहा जाता है कि त्यागराज के भाई ने श्रीराम की वह मूर्ति, जिसकी पूजा-अर्चना आदि त्यागराज किया करते थे, पास ही कावेरी नदी में फेंक दी थी. त्यागराज अपने इष्ट से अलग होना बर्दाश्त नहीं कर सके और घर से निकल पड़े. इसी क्रम में इन्होंने दक्षिण भारत के लगभग सभी प्रमुख मंदिरों की यात्रा की और उन मंदिरों के देवताओं की स्तुति में गीत बनाए.

दक्षिण भारत के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण के दौरान इनके बहुत से शिष्य बन गए, जिन्होंने इनके गीत-संगीत को उस समय ताड़ के पत्रों पर लिखकर संग्रहित किया. कहा तो ये भी जाता है कि इन्होंने उस समय लगभग 24,000 गीत गाये थे, जिनमें से अब मात्र 700 ही बचे हैं और वे भी अधिकांशतः ताड़ पत्र पर ही लिखे उपलब्ध हैं. इन उपलब्ध गीतों से इन्होंने दो प्रसिद्ध संगीत नाटकों की रचना की है, जिनका नाम क्रमशः ‘प्रह्लाद भक्ति विजयम्’ और ‘नौका चरितम्’ है. आज भी इनके गीत विभिन्न प्रकार के धार्मिक और संस्कृति संगीत कार्यक्रमों के प्रारम्भ में लगातार गाये जाते हैं.

इनकी रचनाएं

त्यागराज ने अपने जीवनकाल में क़रीब 600 कृतियों की रचना करने के अलावा तेलुगु में दो नाटक ‘प्रह्लाद भक्ति विजयम्’ और ‘नौका चरितम्’ भी लिखे. ‘प्रह्लाद भक्ति विजय’ जहां पांच दृश्यों में 45 कृतियों का नाटक है वहीं ‘नौका चरितम्’ एकांकी है और इसमें 21 कृतियां हैं. त्यागराज की विद्वता उनकी हर कृति में झलकती है. हालांकि ‘पंचरत्न’ को इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है. सैंकड़ों गीतों के अलावा इन्होंने ‘उत्सव संप्रदाय कीर्तनम्’ और ‘दिव्यनाम कीर्तनम्’ की भी रचना की. इन्होंने संस्कृत में भी गीतों की रचना की. हालांकि इनके अधिकतर गीत तेलुगु में उपलब्ध हैं.

मृत्यु (समाधि)

6 जनवरी, 1847 को त्यागराज ने तंजौर जिले के तिरूवरूर में समाधि ले ली.